Wednesday 20 May 2020

तन्हाई


हुनर बुलंदियों पर पहुँचने का
बार-बार परखता हूँ!
पर 'परछाइयां' बदकिस्मती का
साथ नहीं छोड़तीं।
मुझे पता है 'परछाइयों, तुम अँधेरे में
साथ छोड़ देती हो,
अब मैंने 'रात' को अपना हमसफ़र
बनाया है।

By- राहुल

Hope

We hope,
Life's will come on the way,
Coockoos are singing
with their soul,
Clouds carry water to spray
on the way,
Nature looks like better from
the past,
We pray,
Life's will come on the way.

By- rahul srivastava

भय


पिछले कुछ दिनों से परिंदे भी
ख़ामोश नहीं हैं,
अज़ीब सा मंज़र जो छा गया
है आसमान में।
बादल भी गर्मियों में बिना मौसम
बरस रहें रहे हैं,
जैसे साजिश सी चल रही हो कोई
हवाओं में।

By- राहुल

शायरी

लगता है खौफ़ पैदा हो गई है,
शातिरों के सीने मैं।
फ़िजा में फ़िर दौर चल पड़ा है,
बेफ़िजूल हवाओं का।

By- राहुल

इश्क़


ढूढ़ने चला वो 'इश्क़' कायनात के आयतों में
उसे क्या पता कमख्त ने,
रेत की चादरें बिछा रखी थीं।
कागज़ में लिखी हर दिशाओं में उसे ढूढ़ा
कमबख्त ने,
खुद को परदानशीं कर रखा था।
हारा नहीं, ढूढ़ने निकला फ़िर किताबों में
कमबख्त ने,
किताबों को भी लिहाफ़ पहना रखा था।
गया जब हर गली, हर चौक-चौराहे पर
कमबख्त ने,
वहाँ उजालों को रोक अँधेरा कर रखा था।
आख़िर जब गिरा रब की चौखट पर तब
पता चला कमबख्त ने,
सितारों की भीड़ में घर बना रखा था।
By- राहुल

मय शरीफ हो गई

मय भी अब शरीफ़ हो गई,
दिल के और करीब हो गई।
सुना है ये मुल्क बचाने की,
अब नई तरकीब हो गई ।
मय भी अब.....
कहते हैं डूब रहे बाजारों की,
फिर से नई आमदनी हो गई।
मय भी अब....
ये तो हुक्मरानों के साख की,
असल में नई तक़दीर हो गई।
मय भी अब शरीफ़ हो गई
दिल के और करीब हो गई ।

By- राहुल


मौत की वजह


(संवाद- उस्ताद और शागिर्द के बीच


शागिर्द : मजदूर मर गए उस्ताद।
उस्ताद : कितने?
शागिर्द : 19 में 16 या 17 मर गए बाकी घायल हैं।
उस्ताद : कैसे?
शागिर्द : सोते समय रेल के पहियों से कटकर।
उस्ताद : कब?
शागिर्द : सुबह पांच साढ़े पांच के बीच।
उस्ताद : क्यों?
शागिर्द : करोना के कारण हुए लॉकडाउन में पैदल अपने घर जा रहे थे।
उस्ताद : पटरियों पर सो रहे थे! ठीक-ठीक समझाओ?
शागिर्द : ऐसा है उस्ताद, आप तो जानते हैं कि लॉकडाउन की वजह से करीब डेढ़ महीने से यातायात बंद है। सारे प्रवासी मजदूरों पर रोज़ी- रोटी का संकट आ गया है।...
उस्ताद : एक मिनट रुको (बीच में बात काटते हुए) मजदूर तो एक ही होता है ये प्रवासी मजदूर कहाँ से आ गए?
शागिर्द : ऐसा है उस्ताद मजदूरों को भी कई श्रेणियों में रख दिया गया है। जैसे की संगठित, दिहाड़ी, प्रवासी आदि। इसमें दूसरे राज्यों से आने वाले मजदरों को प्रवासी मजदूर कहते हैं।
उस्ताद : ऐसा क्यों हुआ?
शागिर्द : आप तो जानते हैं उस्ताद जबसे राजनीति में क्षेत्रवाद की टोपी नेताओं ने पहन ली है तब से ये प्रवासी शब्द भी पैदा हो गया है।
उस्ताद : मैंने बीच मैं तुम्हारी बात काट दी थी अब बताओ ये पटरियों के रास्ते क्यों जा रहे थे?
शागिर्द : क्योंकि उस्ताद, ट्रेनें और बसें लॉकडाउन में बंद हैं। सड़क से जाने पर पुलिस डंडे मारकर भगा रही है। इसलिए मजदूर रेल की पटरियों के रास्ते सैकड़ों किलोमीटर पैदल ही अपने घर जा रहे थे।
उस्ताद : तो क्या इन्होंने ख़ुदकुशी कर ली?
शागिर्द : ख़ुदकुशी तो नहीं लगती। कहते हैं उस समय ये चलते-चलते थक गए थे और पटरियों पर सो रहे थे।
उस्ताद : तो क्या हत्या कर दी गई?
ऐसा भी नहीं लगता! वो खुद लॉकडाउन से परेशान होकर घर जा रहे थे। अब ट्रेन को क्या पता की पटरियों पर ये सो रहें हैं। वो तो रौंदते हुए निकल गई।
उस्ताद : फिर तो ये प्राकृतिक मौत है?
शागिर्द : नहीं उस्ताद, इनमे से किसी को भी करोना पॉजिटिव होने की अब तक खबर नहीं आई है।
उस्ताद : फिर क्या इच्छा मृत्यु?
शागिर्द : इसमें संशय है। क्योकि मजदूर सदैव कफ़न में लिपटा रहता है। वह रोजाना अपने और अपने परिवार के लिए कुआँ खोदता है और पानी पीता है।
उस्ताद : इसमें संशय क्यों?
शागिर्द : संशय इसलिए क्योकि व्यवस्था ही ऐसी बनाई गयी है।
उस्ताद : व्यवस्था ?
शागिर्द : हाँ उस्ताद! व्यवस्था , हमें संविधान ने मत देने का अधिकार दिया। अधिकार तो और भी मिले हैं। लेकिन न तो मजदूरों के पास पैसा है और न तो वे जागरूक हैं। व्यवस्था केवल चुनाव के दौरान घर-घर जाकर मतदान का महत्व बताती है। बाकी अधिकार आप पढ़े लिखें हैं तो किताबों मैं लिखा है खुद पढ़ लें। मतदान के दिन जिस लाईन में खड़े होकर यह मत देते हैं। उस दिन कोई भेदभाव (ऊँच- नीच, अमीर-गरीब, जात-पात) नहीं होता। मतदान के कुछ दिनों बाद व्यवस्था को पांच साल चलाने के लिए नई सरकार शपथ लेती है। यहीं से शुरुआत होती है "अवसर" की।
उस्ताद : ये अवसर क्या बला है ?
शागिर्द : हाँ उस्ताद! अवसर। हम व्यवस्था के लिए नई सरकार चुन तो लेते हैं। फिर यही सरकार व्यवस्था के माध्यम से पूंजीपतियो और धन्ना सेठों के लिए अवसर बनाती है। उनके आलिशान महलों और बंगलों को खड़ा करने के लिए। उनकी तिजोरियों में अकूत धन भरने के लिए। उनकी फैक्टरियों की चिमनियों को गरम रखने के लिए।
उस्ताद : अच्छा?
शागिर्द : यही नहीं, चुने हुए लोग अपने लिए भी अवसर बनाकर महल और जमीं ज़ायदाद इकठ्ठा करते हैं।
उस्ताद : इससे मजदूर का क्या वास्ता?
शागिर्द : उस्ताद! यही मजदूर फैक्टरियों की चिमनियों को जलाये रखते हैं। तभी ये उद्यमी चिमनियों की गर्माहट से अपनी जेबें गरम रखते हैं। सड़क, पुल, अस्पताल, स्कूल, ओवरबब्रिज आदि की ईटों को यही तो जोड़ते हैं। बदले में क्या मिलता है बस इतना कि अपना और परिवार का एक दिन पेट भर सकें।
उस्ताद : ये तो नाइंसाफी है? कोई आवाज़ नहीं उठाता?
शागिर्द : उठाते हैं उस्ताद! कुछ बुद्धजीवी अख़बारों के एडिटोरियल पन्नों पर आवाज़ उठातें हैं। कुछ समाजसेवी मजदूरों के वेल्फेयर के नाम पर चन्दा बटोरतें हैं। और ये पीड़ित परिवार को कपडा-लत्ता बांटते हुए अखबारों में फ़ोटो के साथ चिपक जाते हैं। मजदूरों के संगठन भी इनकी आवाज़ बनने का दम्भ भरते हैं। लेकिन ये अपने विचारों के संक्रमण से संक्रमित हैं।
उस्ताद : अच्छा बताओ तब ये हादसा है?
शागिर्द : हादसा कहकर व्यवस्था पल्ला झाड़ सकती है। साथ ही सांत्वना के लिए व्यवस्था कुछ मुआवजा दे देगी। अदालतें भी हादसे पर सहमत हो सकती हैं।
उस्ताद : अंत में ये बताओ कि मजदूर यमराज के पास जायेंगे तो क्या होगा?
शागिर्द : उस्ताद! यमराज भी आदिकाल से इन मौतों का रहस्य नहीं समझ पाये। चित्रगुप्त जी भी अपने बहीखातों में संतुलन नहीं बना पा रहे हैं। ये भी अदालतों की तारीखों पर नज़र बनाये रखतें हैं और फैसले का इंतजार करते हैं।

By- राहुल श्रीवास्त